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  • ok तंत्र में उपयोगी साधन और उनकी वैज्ञानिक उपयोगिता Instruments used in Tantra and their scientific utility

    तंत्र में उपयोगी साधन और उनकी वैज्ञानिक उपयोगिता Instruments used in Tantra and their scientific utility

    तंत्र में उपयोगी साधन और उनकी वैज्ञानिक उपयोगिता Instruments used in Tantra and their scientific utility
    तंत्र में उपयोगी साधन और उनकी वैज्ञानिक उपयोगिता Instruments used in Tantra and their scientific utility

    तन्त्र में उपयोगी साधन और उनकी वैज्ञानिक उपयोगिता Instruments used in Tantra and their scientific utility तन्त्र में उपयोगी साधन और उनकी वैज्ञानिक उपयोगिता यह हम पहले बता चुके हैं-तन्त्र में सभी प्राकृतिक उपयोगी साधनों से उनके गुण, धर्म एवं  के आधार पर यथा समय सहायता ली जाती है।

    इसके साथ ही हमने ‘तम्ब शक्ति’ ग्रन्थ में यह भी स्पष्ट किया था कि ‘किसी भी कार्य की सिद्धि के लिये बिजली के तारों की तरह पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पांच तत्त्वों में से कुछ . का मिश्रण करने पर ही वस्तु की प्रयोगात्मकता सिद्ध होती है।’

    और यह भी सत्य है कि सत्त्व, रजस् एवं तमस्’ रूप तीन गुणों के मिश्रण से ही सृष्टि होती है, किसी एक से नहीं केवल उनकी न्यूनाधिकता से वस्तु में गुण-धर्म आदि बदल जाते हैं और उसमें कार्य करने की शक्ति आ जाती है।

    यही बात वेदान्त के ‘पञ्चीकरण- सिद्धान्त’ में बताई गई है । अतः तन्त्र में भी उसकी सिद्धि के लिए अनेक सहायक तत्त्वों का वैज्ञानिक दृष्टि से सहयोग प्राप्त किया जा सकता है, जिनका निर्देश इस प्रकार है-

    (१) आध्यात्मिक तत्त्व साधना के लिये शरीर, मन एवं अन्यान्य इन्द्रियों का सहयोग सबसे पहले अत्यावश्यक है। स्थिर शरीर स्वस्थ हो, स्वच्छ हो, कार्य करने में समर्थ हो और द्वन्द्व- शीत, गर्मी, वायु आदि के सहन करने में सक्षम हो; क्षुधा, तृषा, आसन और मल-मूत्रादि के वेगों को धारण करने में शिथिल न हो। मन – चंचलता, व्यर्थ चिन्तन और अनुत्साह से मुक्त होकर एका- ग्रता का अभ्यासी हो ।

    इन्द्रियाँ – वासना – वृत्ति के प्रति उदासीन, संयमशील तथा अपने-अपने स्वभाव के प्रति आवश्यकता से अधिक लोलुप न हों । इनके साथ ही चित्तवृत्ति की निर्मलता और अहंकार का सर्वतोभावेन त्याग साधक के कार्य को बहुत ही सरलता से आगे बढ़ाते हैं । आत्मा सभी इन्द्रियों का अधिष्ठाता है। उसी के प्रकाश से सभी इन्द्रियाँ कार्य करती हैं। इनके साथ ही आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ने का प्रयास ही उपासना का अर्थ है। इस प्रकार की उपासनाओं में तन्त्र द्वारा की जाने वाली उपासना भी एक महत्त्वपूर्ण उपासना है।

    जब कोई किसी प्रकार की साधना द्वारा किसी सिद्धि को प्राप्त करना चाहता है तो उसे आध्यात्मिक दृष्टि से अपने मन को स्थिर बनाना चाहिये । मन की स्थिति से ही अन्य इन्द्रियाँ सुस्थिर होती हैं और उसका प्रभाव यह होता है कि सभी प्रकार से साधक का लक्ष्य एकांगी हो जाता है और जिसे ‘ह्वील पावर’ आत्मशक्ति कहते हैं, उसके द्वारा जप, तप, तान्त्रिक विधि आदि की मिश्रित रूप से सिद्धि मिलती है ।

    (२) आधिदैविक तत्त्व आत्मबल के साथ-साथ देवबल भी किसी साधना में परम आवश्यक है । देवता को अनुकूल बना लेने से दैवी तत्त्व से युक्त वस्तु अपने. वास्तविक स्वरूप में फलवती होती है। तन्त्रसाधना में अनेक वस्तुएँ ऐसी प्रयोग में लाई जाती हैं, जिनके आधार पर उनके गुण-धर्मों का फल प्राप्त किया जाता है। इस तत्त्व को जगाने के लिये दो तरह के प्रयास किये जाते हैं – १. कार्य साधक देव के मन्त्र का जप और

    २. वस्तु को अभिमन्त्रित करना । जैसे किसी वृक्ष की जड़ (मूल) का प्रयोग करना है, तो पहले लक्ष्मी प्राप्ति का लक्ष्य हो तो -लक्ष्मी के मन्त्र का जप करना चाहिए तथा फिर उस वृक्षमूल की सिद्धि का मन्त्र जप करें। इसके साथ ही यदि लक्ष्मी प्राप्ति के लिये शिव, विष्णु, गणपति, हनु- मान आदि देवताओं से कामना करनी हो, तो इनमें से किसी एक के मन्त्र का जप भी करना चाहिए।

    (३) श्राधिभौतिक तत्व ‘पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश’ ये पाँच तत्त्व आधिभौतिक कहलाते हैं । तन्त्र-प्रयोग में इनका सहयोग बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है । तान्त्रिक कार्यों में सिद्ध मन्त्र को पृथ्वी पर या सोना, चाँदी, ताँबा और लोहे पर लिखकर उसकी पूजा की जाती है। पृथ्वी में गड्ढा खोद कर यन्त्र गाड़ दिये जाते हैं। वृक्ष के पांचों अंग-मूल, शाखा, पत्र, पुष्प और फल या बन्दे को अभिमन्त्रित कर, प्रयोग में लिया जाता है।

    अनेक विध वनस्पति से प्राप्त सामग्री द्वारा कर्मों के अनुसार हवन होता है। जल को अभिमन्त्रित कर, रोग-निवृत्ति के लिए पिलाया जाता है । जल में देवी-देवताओं का आवाहन करके उनकी पूजा की जाती है तथा जल में हाजरात के प्रयोग भी देखे गये हैं । अग्नि में धूप और हवन का विधान है। धूप के तन्त्र-प्रयोगों में अष्टांग धूप, षडंगधूप और गूगल, राल, लोबान आदि प्रमुख हैं। वायु की तन्मात्रा गन्ध है । सुगन्धित पदार्थों से देवताओं की पूजा और मन्त्र जपकर फूंक मारने का प्रयोग भी प्रसिद्ध है ।

    आकाश तत्त्व का सम्बन्ध शब्द से है। शब्द की ध्वनि, उच्चारण, जप, पाठ, प्रार्थना आदि सभी तान्त्रिक साधना में परम उपयोगी हैं। इस तरह स्थूल रूप से उपर्युक्त पांचों तत्त्वों में सभी का समावेश हो जाता है ।

    ये तत्त्व साधक के द्वारा पूर्ण रूप से आत्मसात् किये जाएँ, यह वाञ्छनीय है, किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि यदि पूर्ण- रूपेण पालन न किया जा सके, तो कोई साधना ही न करे। हाँ, इतना अवश्य है कि इस ओर प्रवृत्ति रहनी चाहिए और जहाँ तक सम्भव हो, कालिक प्रभाव में न आकर स्थिर मन, स्थिर विचार और स्थिर विश्वास से कार्य करें, अवश्य सिद्धि होगी ।

  • ok shiv tantra शिव तंत्र शास्त्र आधुनिक विज्ञान और तंत्र ph. 8528057364

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    shiv tantra शिव तंत्र शास्त्र आधुनिक विज्ञान और तंत्र ph. 8528057364 आधुनिक विज्ञान और तंत्र प्रत्येक बुद्धि-सम्पन्न व्यक्ति के मन में सदैव एक यह तर्क रहता है कि – “आज विज्ञान जितना विकसित हो गया है और हमारे जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है, उसी तरह तन्त्र से भी पूर्ति सम्भव है क्या ?”

    अथवा “जब विज्ञान ने सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के उपकरण उपस्थित कर दिए हैं, फिर तन्त्र और उनकी साधनाओं से क्या लाभ है ?” इन दोनों प्रश्नों का समाधान हम इस प्रकार कर सकते हैं— “विज्ञान जिन साधनों से हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है, वे साधन क्रमशः एक-दूसरे के अधीन हैं, अर्थात् वे परापेक्षी हैं, उनका उप- योग स्वतन्त्र रूप से नहीं हो सकता, जबकि तन्त्र-साधना द्वारा स्वतन्त्र रूप से सिद्धि प्राप्त की जा सकती है।

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    विज्ञान की सिद्धि कुछ समय तक ही लाभप्रद होती है, किन्तु तन्त्र द्वारा प्राप्त सिद्धि चिर स्थायी हो सकती है। विज्ञान बाह्य रूप से सहयोगी बनता है, जबकि तन्त्र हमारे आन्तरिक मस्तिष्क को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करते हैं। इसलिए परतन्त्रता की अपेक्षा स्वतन्त्रता ही श्रेयस्कर है ।

    वैसे विज्ञान के लक्ष्य भौतिक कार्यों की उपलब्धि तक ही सीमित हैं, जबकि तन्त्र का उद्देश्य इस लोक की सुख-सुविधाओं की पूर्ति के साथ-साथ जीव को शिवस्वरूप बनाना भी है। जीव और शिव की व्याख्या ‘कुलार्णव तन्त्र’ में इस प्रकार दी गई है—

     

    अर्थात् घृणा, लज्जा, भय, शंका, जुगुप्सा-निन्दा, कुल, शील और जाति ये आठ पाश कहे गए हैं, इनसे जो बंधा हुआ है, वह जीव है । इन्हीं पाशों से छुड़ाकर (तन्त्र जीव को) सदाशिव बनाते हैं। इस तरह दोनों के उद्देश्यों में भी पर्याप्त अन्तर है और विज्ञान से तन्त्रों के उद्देश्य महान् हैं।

    तन्त्रों की इस स्वतन्त्र वैज्ञानिकता के कारण ही प्रकृति की चेतन- अचेतन सभी वस्तुओं में आकर्षण – विकर्षण उत्पन्न कर, अपने अधीन बनाने के लिए कुछ देवी तथ्यों का आकलन किया गया है।

    जैसे विज्ञान एक ऊर्जा शक्ति से विभिन्न यन्त्रों के सहारे स्वेच्छानुसार रेल, तार, मोटर, बिजली आदि का प्रयोग करने के द्वार खोलता है, वैसे ही तन्त्र- विज्ञान परमाणु से महत्तत्त्व तक की सभी वस्तुओं को आध्यात्मिक एवं उपासना-प्रक्रिया द्वारा उन पर अपना आधिपत्य जमाने की ऊर्जा प्रदान करता है।

    अनुपयोगी तथा अनिष्टकारी तत्त्वों पर नियन्त्रण रखने की शक्ति पैदा करता है तथा इन्हीं के माध्यम से अपने परम तथा चरम लक्ष्य की सिद्धि तक पहुँचाता है। मन्त्र जप एवं तान्त्रिक विधानों के बल पर मानव की चेतना ग्रंथियां इतनी जागृत हो जाती हैं कि उनके इशारे पर बड़ी से बड़ी शक्ति से सम्पन्न तत्त्व भी वशीभूत हो जाते हैं।

    तान्त्रिका साधना निष्ठ होने पर वाणी, शरीर तथा मन इतने सशक्त बन जाते हैं कि उत्तम इच्छाओं की प्राप्ति तथा अनुत्तम भावनाओं का प्रतीकार सहज बन जाता है । भारत तन्त्रविद्या का आगार रहा है। प्राचीन काल में तन्त्र- विज्ञान पूर्ण विकास पर था, जिसके परिणाम स्वरूप ही ऋषि-मुनि, सन्त-साधु, यती-संन्यासी, उपासक आराधक अपना और जगत् का कल्याण करने के लिए असाध्य को साध्य बना लेते थे

    । ‘मन्त्राधीनास्तु देवताः’ इस उक्ति के अनुसार देवताओं को अपने अनुकूल बनाकर छायापु रुष, ब्रह्मराक्षस योगिनी, यक्षिणी आदि को सिद्ध कर लेते थे और उनसे भूत-भविष्य का ज्ञान तथा अतर्कित- अकल्पित कार्यों की सिद्धि करवा लेते थे ।

    पारद, रस, भस्म और धातु-सिद्धि के बल पर दान-पुण्य, जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति, बड़े-बड़े यज्ञ योगादि के लिए अपेक्षित सामग्री की प्राप्ति आदि सहज हो कर लेते थे और सदा अयाचक वृत्ति से जीवन बिताते थे ।

    यह सत्य है कि सभी वस्तुओं के सब अधिकारी नहीं होते हैं और न सभी लोग सब तरह के विधानों के जानने के ही। साधना को गुप्त रखने का तन्त्रशास्त्रीय आदेश भी इसीलिए प्रसिद्ध है- और- गोपनीयं गोपनीयं गोपनीयं प्रयत्नतः ‘Hold fast silence what is your own lest icy fingers be laid upon your lips to seal them forever.” ( प्रयत्नपूर्वक मौन रखिये ताकि आपके होठ सदा के लिये बन्द न हो जायँ ।)

    अतः सारांश यह है कि ऐसी वस्तुओं को गुप्त रखने में ही सिद्धि है । तन्त्र योग में शरीर और ब्रह्माण्ड का जितना अद्भुत साम्य दिखाया गया है, वैसा अन्यत्र कहीं भी ब्रह्माण्डे’ (जैसा पिण्ड-शरीर में, वैसा ही दुर्लभ है। ‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्ड में) इस उक्ति को केवल पुस्तकों तक ही सीमित न रखकर प्रत्येक वस्तु को उसके गुणों के अनुसार पहचानकर उसका उचित तन्त्र द्वारा विनियोग करते हुए प्रत्यक्ष कर दिया है।

    तन्त्र के प्रयोगों में भी एक अपूर्व वैज्ञानिकता है, जो प्रकृति से प्राप्त पञ्चभूतात्मक पृथ्वी, जल, तेज, अग्नि, वायु और आकाश- वस्तुओं के सहयोग से जैसे एक वैज्ञानिक रासायनिक प्रक्रिया के द्वारा नवीन वस्तु की उपलब्धि करता है वैसे ही-नई-नई सिद्धियों को प्राप्त करता है।

    तन्त्रों ने प्रकृति के साथ बड़ा ही गहरा सम्बन्ध स्थापित कर रखा है। इसमें छोटे पौधों की जड़ें, पत्ते, शाखाएँ, पुष्प और फल सभी अभि- मन्त्रित उपयोग में लिए जाते हैं। मोर के पंख तान्त्रिक विधान में ‘पिच्छक’ बनाने में काम आते हैं तो माष के दाने कुछ प्रयोगों में अत्या- वश्यक होते हैं। सूर्य ग्रहण और चन्द्र ग्रहण में तान्त्रिक साधना का बड़ा ही महत्त्व है।

    श्मशान, शून्यागार, कुछ वृक्षों की छाया, नदी-तट आदि इस साधना में विशेष महत्त्व रखते हैं। स्नान, गन्ध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, आरती और पुष्पांजलि आदि पूजा पद्धति की क्रियाएं तन्त्रों के द्वारा ही सर्वत्र व्याप्त हुई हैं । इस तरह तन्त्र विज्ञान और विज्ञान तन्त्र का परस्पर पूरक है, यह कहा जाए तो कोई अत्युक्ति नहीं है।