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  • ok Kali Sadhana काली महाविद्या  साधना मंत्र प्रयोग सहित Ph. 85280 57364

     

    Kali Sadhana काली महाविद्या  साधना मंत्र प्रयोग

    सहित Ph. 85280 57364

    maa tara sadhna माँ तारा साधना और माँ तारा साधना के लाभ ph. 85280 57364
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    Kali Sadhana काली महाविद्या  साधना मंत्र प्रयोग सहित Ph. 85280 57364 इस पोस्ट में माँ काली साधना के बारे में चर्चा  विस्तार सहित की जाएगी माँ काली साधना इस जीवन में क्यों जरूरी है इस विषय पर विस्तार सहित चर्चा करगे आप इस पोस्ट को पूरा पढ़े 

    महाविद्या काली  बिजली की तरह कड़क कर वज्र की तरह गिरती है जो शत्रुओं जीवन में शत्रुओं का एक-एक करके रोम. विनाश करने का अर्थ है अपनी जीवनशक्ति का ही विनाश और शत्रु तो इस जीवन में एक नहीं अनेक हैं तनाव, आर्थिक अभाव. गृहकलह पीड़ा क्या ये सब मी शत्रु नहीं है. जीवन के सहज आनंद में? इनको तो समाप्त करने की एक मात्र साधना सर्वसम्मति से शास्त्रों में स्वीकृत है।

    साधना जगत के किसी भी रहस्य की चर्चा केवल व केवल रश्मिनयों के आधार पर की हैं और यह विज्ञान या वहम तनाव, आर्थिक अभाव, गृहक शत्रु नहीं है, जीव साधना सामा जगात के किसी भी रहस्य की चर्चा केवल द केवल रश्मियों के आधार पर की व समझी जा सकती है। रश्मियों का संघटन विघटन ही साधना में सफलता-असफलत बन कर हमारे समझ आता है, और संघक किसी भी स्तर पर खड़ा हो, यह घटना अवश्यम्भावी होती है यह बात अलग है, कि साधक साधना के किस चरण अथवा दृष्टि के विकास की किस अवस्था में इसका सात् कर पाता है। इसका यदि सरल सा एक भौतिक उदाहरण देना हो तो सूर्य ग्रह से दिया जा सकता है।

     

    सूर्य हमारे समक्ष इस धरा पर नहीं उत्तर आता किंतु उसकी रश्मनयों के माध्यम से हम उसका नित्य ही साक्षात करते रहते हैं, उसे अपनी देह पर अनुभव करते रहते हैं। साधक भी सचना के विकसित चरणों में किसी भी देवी अथवा देवता का ऐसा अनुभव अपनी अन्तर्देह पर करने में सक्षम हो जाता है। इसी अनुभव से चित्त में जो धारणा बनती है वही साधना के क्षेत्र में बिम्ब कही जाती है, जो वास्तविक होती भी है और नहीं भी वास्तविक इस कारण होती है, क्योंकि हमने सधना के माध्यम से ऐसा कुछ अनुभूत किया होता है और वास्तविक इस कारण नहीं भी हो सकती है, क्योंकि समुचित रूप से विश्लेषण करने की क्षमता तब तक पता नहीं विकसित हुई हो, अथवा नहीं साधना, थ्योरी आफ रेजेज (रश्मि विज्ञान) नहीं है, किंतु इसी आधार पर किसी सीमा तक अन्तश्चेतना को विकसित इनको तो समाप्त क सर्वसम्मति से शा अपनी जीवनशक्ति का ही विनाश में एक नहीं अनेक हैं जह, पीड़ा क्या ये सब मी रोग. कर धारणा व विवेचनाएं की जा सकती हैं और यही कार्य तो विज्ञान या सइस भी कर रहा है।

    ध्वनि का कोई स्वरूप नहीं होता, किंतु विज्ञान एक तरंग के रूप में उसकी सफलतापूर्वक व्याख्या करता है। यही व्याख्या किसी भी मुहूर्त के विषय में की जा रुकतों हैं। चैतन्यता के कुछ विशेष क्षण होते हैं, देवताओं की प्रसन्नता व वर प्रदान के कुछ दुर्लभ क्षण होते हैं, प्रकृति जब स्वयं अणु- अणु मैं अपनी उदारता लुटाने को तत्पर हो जाती है, किसी विशेष कार्य को सम्पन्न कर लेने का मूक संकेत देने लग जाती है, वही मुहूर्त होता है।

     

    साइंस के आधार पर इसको व्याख्या नहीं की जा सकती और साइंस तो स्वयं आज कई क्षेत्रों में अनुत्तरित रह गई है। मानव मस्तिष्क में कितने तन्तु होते हैं अथवा मानव मस्तिष्क कैसे कार्य करता है, जैसे अनेक प्रश्न आज भी उसके लिए पहेली ही है। यह ठीक है, के विज्ञान ने क्लोन (प्रतिरूप) बनाने में सफलता प्राप्त कर ली हैं, किंतु यदि वह सृजन की क्षमता से युक्त हो गई। है, तो क्यों नहीं आज तक कैंसर जैसे प्राचीन रोग का समाधान मिला ?

    यह विज्ञान की आलोचना नहीं हैं बस यह कहने का प्रयास है कि उसकी भी एक सीमा है। हो सकता है भविष्य में कैंसर का, एड्स का कोई प्रभावशाली उपाय या समाधान मिल और फिर क्या यह संभव नहीं है, कि कभी साइस वा विज्ञान भी भारतीय ज्ञान के इन विज्ञान पक्षों का कोई रहस्य तंत्र-यंत्र विज्ञान जार उन के सहज आनंद में? करने की एक मात्र साधना स्त्रों में स्वीकृत है विवेचित कर दे हो सकता है सब कोई शोध ‘द थोरो इन्पेक्ट ऑफ नेचर ऑन द इनर कॉन्शस ऑफ ग्रेट इंडियन ऋषीज जैसे भारी भरकम नाम से सामने आए और शायद तब भारतवासियों को भी गर्व हो सके कि जो आज हजारों वर्ष पूर्व उन ऋषियों ने कहा, जिनका हम यद-कदा बस विवाह, मुंडन पर सारण कर लेते हैं, ये भी कितने इंटिफिक माइड के थे।

    भाग कर भी प्रभाव होता है, विशेष कर उस | देश में जो देश सौ वर्षो तक गुलाम रहा हो वहां तो होगा ही। भाषा का मी एक कुचक्र होता है और ऐसे कुचक्रों का तो केवल युग पुरुष ही तोड़ पाते हैं ‘गुरु गोरखनाथ’ या भगवान बुद्ध की तरह। मुहूर्त की आज के समय में समुचित अथवा ‘साइंटिफिक’ व्याख्या संभाव्य हो अथवा न हो, किंतु एक बात तो स्पष्ट है ही, कि काल के जो क्षण व्यतीत हो जाते हैं, दे फिर लौट कर नहीं अते और वहीं किसी मुहूर्त का उपयोग करने का तात्पर्य भी होता है। साधक को किसी साइटिफिक व्याख्या की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि वह स्वयं अन्तश्चेतना से मुहूर्त के प्रभाव का साक्षी अन्तर्मन से बन जाता है। 1 

    स्वयं अनुभव करने लग जाता है, कि काल के कुछ ऐसे होते हैं जब उसे साधना में सफलता अल्प प्रयास से मिल  जाती है। पाश्चात्य सभ्यता में जिसे मूड कहते हैं या भारतीय सभ्यता में जिसे चैतन्य क्षण कहते है वे सभी क्षण वास्तव में मुहूर्त के ही होते हैं। वस्तुत अंग्रेजी के शब्द ‘मोड’ (ढंग, | प्रकार) का ही परिवर्तित रूप ‘मूड’ कहलाता है, जो अपनी अन्तर्भावना में मुहूर्त के ही समीपस्थ सिद्ध होता है। इसके उपरांत साधक को भी मुहूर्त के विषय में प्रायः | एक प्रकार की अस्पष्टता ही होती है। काल का जो क्षण होती तो इस वर्ष ही निकल गया, वह कैसे निकल गया नहीं हर वर्ष पडती हैं जैसी अनेक हाते प्रत्येक साधक के मन में उमड़ती घुमड़ती रहती हैं, भले ही वह मदद कहे या न कहे।

    किंतु साधक को यह ध्यान रखना चाहिए, कि यद्यपि यह सत्य है, कि होली अथवा कोई भी पर्व प्रत्येक वर्ष घाटत होता है, किंतु प्रत्येक वर्ष नक्षत्र, योग एवं चंद्रमा की स्थिति के कारण मुहूतों में भी आन्तरिक विशेषता प्रबंधित अथवा न्यून होती रहती है। होली की रात्रि को भी अपनी एक पृथक चैतन्यता होती है जो दीपावली में नही हो सकती और दीपावली की होली में नहीं।

    होली का पर्व या होलिका दहन की रात्रि वास्तव में उतना ही अधिक तीव्र प्रभाव रखती है जितना अधिक प्रभाव सूर्य ग्रहण के क्षण रखते हैं। यह व्याख्या से अधिक अनुभव का विषय है। जिस प्रकार सूर्य ग्रहण के क्षण अपने आप में शात्रोक्त साधनाओं के विलक्षण होते हैं, ठीक उसी प्रकार होली की रात्रि भी तांत्रिक साधकों के मध्य केवल व केवल प्रबल महाविद्या प्रयोगों के लिए ही आरक्षित सी रहती है।

    प्रत्येक उच्चकोटि का तांत्रिक परे वर्ष भर प्रतीक्षा करता रहता है, कि कब होली का पर्व पर और यह अपनी साधना को पूर्णता दे सके। शेष वर्ष तो वह एक प्रकार से इसकी पृष्ठभूमि ही बनाता रहता है। यह उचित भी है क्योंकि सूर्य ग्रहण की ही भांति होलिका दहन की रात्रि में सम्पन्न की जाने वाली प्रत्येक माला अपने आप में सौ मालाओं का प्रभाव रखती है। साचक स्वयं अनुमान कर सकते हैं कि जिन उच्चकोटि की साधनाओं में, जहां पांच लाख अथवा दस लाख न्त्र जप पांच हजार अथवा दस हजार माला मंत्र जप से सम्पूर्ण करने पहते हैं।

    वहीं होली की रात्रि में इन्हें मात्र इक्यावन अथवा एक सौ एक माला मंत्र जप से सम्पूर्ण किया जा सकता है। मुहूतों का यही तो वैशिष्ट्य होता है, कि ऐसे अवसर पर कम परिश्रम से जीवन में बहुत कुछ अर्जित किया जा सकता है। होलिका दहन की रात्रि में साधक अपनी रुचि व क्षमता के अनुकूल कोई भी तांत्रिक साधना सन्न कर सकता है, किंतु जह जीवन में कुछ विशिष्ट करने को कामना हो और इससे भी अधिक जीवन में एक ऐसा आधार बनाने की भावना हो, जिस आधार पर खड़ होकर जीवन में पौरुष प्रखरता तेज का समावेश हो सके, वहा किसी एक महाविद्या साधना का आश्रय लेना पड़ जाता है। महाकाली यह मात्र एक महाविद्या साधना नहीं स्वयं अपने आप में होली का उत्सव ही है, जिसको सम्पन्न कर साधक, अपने दुभाग्य को योगाग्नि में भस्म कर फिर सुख-सौभाग्य के अबीर गुलाल मैं नहा उठता है। और भीग जाता है।

    महाकाली का स्वरूता वा है, क्रोधोन्मत्त है, संहारकारी है, सामान्य व्यक्ति के लिए भयप्रद है किंतु है तो अन्ततोगत्वा मां का ही स्वरूप… जो कुछ सामान्य व्यक्ति के लिए भयप्रद है वहीं साधक के लिए उसकी ‘मां’ के आयुध है उसके जीवन के वैषम्य को समाप्त करने में सहायक… आनंद के टेसू की गुनगुनी फुहार मे महाविद्या उनमें से न केवल सर्वश्रेष्ठ चन् सर्वधन भी है। शक्ति साधनाओं में भी प्रदेश का एक क्रम होता है जिस प्रकार कोई बालक सीधे ही दसवीं कक्षा में प्रवेश नहीं ले सकता, ठीक उसी प्रकार शक्ति साधनाओं में प्रवेश के आतुर साधक को भी सर्वप्रथम महाकाल महाविद्या की साधना सम्पन्न करती पड़ती है।

    दूसरी ओर यह साधना के उच्चतर अयमों में प्रविष्ट हो गए साधकों की भी इष्ट साधना होती है क्योंकि साधना केवल गणित नहीं होती। यह सत्य है, कि साधनाओं का एक क्रम होता है, किंतु क्या साधना करना उसी प्रकार है, जिस प्रकार हम दैनिक जीवन में स्वार्थवश सम्बन्ध बनाते और तोड़ते रहते हैं? यदि एक अतरिकता ही नहीं विकसित की तो साधना के क्षेत्र में प्रविष्ट होने का अर्थ ही क्या इसी आंतरिकत के वशीभूत होकर अनेक साधकों के जीवन की यह (महाकाली) न केवल आधारभूत सधना वरन सर्वस्व हो गई।

    श्री रामकृष्ण परमहंस ने अपने जीवन में महाकाली साधना के अतिरिक्त अन्य किसी लधना को प्रश्रय ही नहीं दिया और केवल इसी आधार पर एवंथा निरक्षर होते हुए भी उन्होंने स्वामी विवेकानंद जैसे प्रखर व्यक्तित्व को शिष्य रूप में प्रस्तुत करने में सफलता भी पाई। केवल महाकालो ही नहीं अपितु प्रत्येक महाविद्या अपने अम में सम्पूर्ण है, लेकिन किसी एक विशेष गुण का प्रतिनिधित्व करती हुई और प्रारम्भिक साधक को उस महाविद्या विशेष के प्राथमिक (अर्थात् विशेष गुण की साधना करना हो उचित रहता है। कोई भी महाविद्या जीवन की आधारभूत साधना तो विकास के किसी क्रम में जाकर बन पाती है।

    यह एक साधकोचित मर्यादा भी है और साधना जगत की वास्तविकता भी। जिस प्रकार महाकाली शक्ति की प्रथम धन्य है, ठीक इसी प्रकार पौरुष प्रखरता और तेज भी जीवन की प्राथमिक आवश्यकताएं हैं। जीवन के क्षेत्र में भी और साधना के क्षेत्र में भी। पीता के अभाव में कुछ भी सुव्यवस्थित नहीं हो सकता और पौरत से तात्पय मर्दानगी से नहीं वरन जीवन की उस दृढता से है जो प्रत्येक स्त्री था पुरुष में होनी ही चाहिए। जीवन घिसट-घिसट कर चलने के लिए प्रभु ने हमको नहीं दिया है। जीवन इतना सस्ता नहीं हो सकता है, कि उसे विविध शत्रुओं से संघर्ष करने में व्यतीत कर दिया जाए।

    केवल बाह्य शत्रु अथवा किती स्त्री-पुरुष के रूप में विद्यमान शत्रु ही नहीं, शत्रु तो आंतरिक भी होते हैं। आंतरिक शत्रुओं से लड़कर ही फिर हम किसी बाह्य शत्रु से चुनौती ले सकते हैं। यदि आतंरिक बल नहीं है, तो न किसी शत्रु से शारीरिक अथवा मानसिक युद्ध ठाना जा सकता है और न उसमें सफलता पाई जा सकती है। व्यापार करते हैं तो किसी प्रतिद्वन्द्वी द्वारा प्रताड़ित किया जाना, नौकरी करते हैं तो अधकारी द्वारा अपमानित किया जान समय से दोति न मिलना, घर में कलह होते हैं रहना इत्यादि सद शत्रु ही है।

     

    इन सभी शत्रुओं से पृथक-पृथक लड़ने में व्यक्ति की जीवनी शक्ति इस प्रकार चुक जाती है, कि फिर न तो उसके स साधना करने की शक्ति शेष रह जाती है और न कभी-कभी साधना के प्रति विश्वास। ऐसी स्थिति में बुद्धिमत्ता इसी में हैं, कि वह उपाय सोचा जाए और सोच कर प्रयोग में लाया जाए जो सभी शत्रुओं का एक बार में ही संहार कर दे। महाकाली साधना इसी का एक प्रयास है शत्रु संहार की दो मुख महाविद्या सघनार है प्रथम महाकाल और द्वितीय बगलामुखी किंतु दोनों ने एक सूक्ष्म भेद है। बगलामुखी साधना जहां किसी प्रत्यक्ष शत्रु के विरुद्ध प्रभावशाली होती हैं. वहीं महाकाली प्रत्यक्ष शत्रु के साथ-साथ जीवन के अन्यान्य पक्षों में छिपे शत्रुओं के प्रति भी सक्रिय होती हैं। इसके अतिरिक्त बगलामुखी महाविद्या की साधना विधि अत्यंत दुष्कर है बगलामुखी महाविद्या को सिद्ध करने के लिए आवश्यक है कि साधक कठोर अन्य नियम संरने का पलन करने के साथ-साथ निरंतर गुरु साहचर्य में रहे। जो श्रेष्ठ साधक होते हैं, वे ऐसा करते भी हैं. किंतु जहां केवल जीवन को सवारते हुए एक निश्चित क्रम शालीनता के साथ शक्ति साधन के क्षेत्र में प्रविष्ट होने की शत आती है, फिर वहां महाकाली का महत्व सर्वोपरि स्वयं सिद्ध हैं।

    साथ ही इस बात की तो चर्चा पहले भी की है, कि महाकाली महाविद्या ही महाविद्या साधनाओं का प्रवेश द्वार है। बगलामुखी एक पहुंचना है तब भी महाकाली साधना तो सम्पन्न करनी ही पड़ेगी। इस वर्ष होली का मुहूर्त इस साधना के लिए सर्वाधिक उपयुक्त अवसर है। यों तो साधक इस साधना को जीवन में विशेष संकट आने पर अथवा मन में साधना के प्रति एक ललक रहने पर किसी भी मह के कृष्ण पक्ष की अष्टमों को सम्पन्न कर सकता है, किंतु होली पर्व की तो चैतन्यता है विलक्षण होती है फिर इस वर्ष की होली का पर्व तो विशेष योगों से गठित हुआ है।

    महा काली साधना विधि 

     

    बाह्य वातावरण शांत होने से साधक चैतन्यता को पूरी तरह से आत्मसात करने में सफल हो पाता है। महाकाली को महाविद्या के रूप में सिद्ध करने अथवा जीवन की विविध समस्याओं को | सुलझाने के आतुर शिष्यों को चाहिए कि वे उपर्युक्त काल में लाल वस्त्र धारण कर लाल रंग के ही आसन पर दक्षिण की ओर |

    मुख करके बैठें और अपने सामने लकड़ी के किसी बाजोट पर लाल वस्त्र बिछाकर उस पर ताम्रपत्र पर अंकित ‘महाकाली यंत्र स्थापित करें। अपने दाहिने हाथ की ओर (यंत्र के समीप) ‘भैरव गुटिका’ नध्य में तेजस गुटिका तथा बांयी ओर ‘क्लीं गुटिका का स्थापन कर सभी का पूजन जल कुंकुंम अक्षत, पुष्प धूप से करें, जिससे जीवन में व शरीर में बल, ओज च पौष का समन्वय हो सके। इसके पश्चात तेल का एक दीपक प्रज्ज्वलित कर दें, जो सम्पूर्ण साधनाकाल में अखंड रूप से जलता रहे। अब महाकाली यंत्र का भी संक्षिप्त पूजन करें और यंत्र पर दस कुंकुंम की बिंदियां ब्ली मंत्र के साथ लगाएं तथा निम्न | प्रकार से

     

    ध्यान उच्चरित कर भगवती महाकाली से अपने जीवन के सभी दुख दैन्य समाप्त करने की याचना कर उन्हें पूर्ण रूप से अपने प्राणों में समाहित करने की भावना के साथ महाविद्याल से निम्न मंत्र की इक्कीस माला मंत्र जप निष्क्रम्प भाव से करें मंत्र

     

    मंत्र जप काल में हुई किसी भी अनुभूति से न हो विचलित हों, न उन्हें सार्वजनिक करें। साधना के दूसरे या तीसरे दिन सभी सामग्रियां लाल वस्त्र में लपेट कर किसी नदी मंदिर अथवा स्वच्छ जलाशय में विसर्जित कर दें। भगवती महाकाली को यह दुर्लभ साधना वास्तव में महाकाली को प्राणों में समाहित करने की ही साधना है यह सत्य है, कि प्रत्येक दैवी शक्ति बह्य रूप से भी शक का हित साधन करने में साधना के उपरांत तत्पर रहती है, किंतु उसे शक्ति को अपने शरीर में समाहित करना न केवल साधक के लिए अधिक हितकारी होता है वरन उस दैवीय शक्ति के लिए भी अहलादकारी होता है। यही इस सघना की मूल भावना है। यहीं किसी भी साधना की मूल भावना होती है।

     

     

     

     

  • ok वैदिक मंत्र महाकाली साधना Vedic Mahakali Sadhana ph. 85280 57364

    वैदिक मंत्र महाकाली साधना Vedic Mahakali Sadhana तांत्रिक  मान्यता में महाकाली को आदि शक्ति का साकार प होने के कारण आद्या काली भी कहा गया है। आदि शक्ति होने के फलस्वरूप वे अपने साधक को शक्ति प्रदान करती हो रहती हैं। 

    रुद्र यामल में स्पष्ट किया गया है, कि बेता गुग में सुर असुर संग्राम के दौरान, जब रक्त बाज नामक दानव सुरों पर भारा पड़ने लगा, तो आदि शनि ने अपने तेज से एक आल्यंत नेजस्वी एवं भयंकर स्वरूपा देवी-महाकाली को प्रकट किया। रकबीन और अन्य दानवों को तो उसने क्षणभर में ही नष्ट कर दिया, परन्तु | 

    फिर भी उसका क्रोध शांत नहुआ.. उस समय क्रोध से बह इतनी प्रचण्ड हो गई थीं, कि असुरों के साथ-साथ सुरों की सेना का भी भक्षण करने लगी। 2 स्थिति अत्यधिक संकटजनक थी, क्योंकि जिस गति से महाकाली सब का भक्षण कर रही थी, उस तरह तो समस्त ब्रह्माण्ड में ही मलय की स्थिति बनना निश्चित था . . . पर इस स्थिति का उपाय करे कोनः ऐसे समय में महाकाली को समझाए कौन?

     

     उनके समझा जाने को मिल करे कौन? काफी मंत्राणा के बाद ब्रह्मा, विधा. इन्द्र आदि ने महादेव की शरण में जाना निश्चित किया। महादेवनो हमेशा की तरह ही समाधि में लीन थे, देवताओं ने काफी स्तुति, अर्चना आदि कर किसी तरह उनका ध्यान अपनी और आकृष्ट किया, तो शिव ने उन सबसे कैलाश आने का कारण पूछा।

    तब श्रीहरि ने सारा वृत्तांत सुनाकर अंत में कहा-हे रूद्र अब आपका ही हमें आसरा है, क्योंकि शक्ति के इस क्रोध के बेग को आपके सिवा कोई झेल नहीं सकता। हे शिब’ जिस प्रकार से भयंकर हलाहल को आपके सिवा कोई नहीं धारण कर सकता था, उसी प्रकार आज आपके सिवा शक्ति का कोई सामना नहीं कर सकता…कृपा करे, प्रभु!

     हमें इस दुविधा से उचारिए, नहीं तो असमय ही प्रलय हो जाएगी… भगवान शिव को देवताओं पर अत्यधिक करुणा आई और वे ताम्माण वहां पहुंच गए जहां भयंकर दाड़ी वाली महाकाली, भयंकर मट्टाहास कर सब कुछ मक्षाण कर रही थीं… शिय ने जब यह देखा तो वे बिना समय नष्ट किए उस मार्ग पर लेट गए 

    जहां से महाकाली आ रही थीं बेची तो अपनी ही धुन में थी, और इस तरह उसका पांच शिव के वक्ष पार पड़ गया। गगवान शिव के वक्ष पर पांव पड़ने ही देवी एक क्षण के लिए बहुत सकुचाई और दूसरे को क्षण उनका सारा क्रोध समाप्त 4 हो गया और इस प्रकार से सृष्टि का विनाश होने से बचा। शिव जिन्हें माद भी कहते है, उनके ऊपर स्थित शक्ति के इस स्वरूप को ही महाकाली की संज्ञा से विभूषित किया गया है। महाकाली का स्वरूप बड़ा ही उग्र है।

    वह विशालकाय और अत्यधिक सुन्दर है, उनकी जिल्ला रक्त से जित हमेशा बाहर निकली रहती है। उनके गले में ताजे कटे मुण्टो कीमाला है, जिनमें से रक्त टपकता रहता है। पायल और पाजेब की जगह छोटे-छोटे सो एवं हरियों को धारण कर रखा है। उनके चार हाथ हैं जिनमें क्रमशः खड्ग, यमपाश, माण्ड एवं कपाल पात्र है, उनके तीन नेत्र हैं। 

    महाकाली को दस महाविद्याओं में सबसे महत्वपूर्ण माना गया है, आखिर इसका कारण क्या है? पहला तो यह कि इस स्वरूप की साधना की सृष्टि स्वयं शिव ने की थी और यह साधना अत्यंत तेजस्वी होने के साथ-साथ अत्यधिक सरल और सहज है, कोई भी पुरुष-स्त्री, बालक-वृद्ध इसको सम्पन्न कर सकता है। 

    इसमें किसी भी प्रकार की कोई रोक-टोक नहीं। दूसरा इस साधना की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है, कि इसी एक साधना से जहां महाकाली सिद्ध होती हैं वहीं रुद्र भी वतः ही सिन्न हो जाते हैं, यानि एक ही साधना से दो दिव्य शातियों की कृपा प्राप्त की जा सकती है। 

    अब मैं नीचे कुछ बिन्दु स्पाट कर रहाई, जो इस साधना को सफलतापूर्वक सम्पन्न करने पर व्यक्ति के जीवन में स्वतःही उतर आते हैं देवी अष्ट मुण्डी की माला पहनती है, जिसका नाविक अर्थ अष्ट पाशों से है। साधक पूर्ण रूप से अष्ट पाशों समुक्त हो जाता है और तंत्र के क्षेत्र में अत्यंत ऊंचाइयों को मास कर पाता है।

    महादेवी के हाथ में यमपाश है, जिसका अर्थ है कि व्यक्ति यमपाश मृत्यु से मुक्त हो जाता है। वह सारा जीवन स्वस्थ, निरोश और पूर्ण आयुष्य भोगता है। देवी के हाथ में नर मुण्ड भी है जिसका अर्थ है कि से साधक का अज्ञान रूपी अंधकार मिट जाता है और उसमें एक नई चेतना एवं ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है।

     4.इस साधना के उपरांत या तो व्यक्ति के शय रहते ही नहीं और अगर होते हैं, तो वे हमेशा उसके आगे विनीत भाव से रहते हैं, उसकी हर बात स्वीकार करते ही हैं। ऐसे व्यक्ति के घर में अटूट सम्पदा, धन, धान्य की रिस्थति बन जाती है, समाज में मान, प्रतिष्ठा, पद सब कुछ सहज ही प्राप्त हो जाता है। 

    उसका पारिवारिक जीवन बड़ा सुखद होता है। उसे पुत्र एवं पौत्रों की प्राप्ति होती है। निश्चय हीमहाकाली साधना एक अद्गुन होरक खण्ड है. जो आपके हाथों में आने के लिए लालाधित है, लेकिन यह भी | एक सत्य है कि हीरक खण्ड मिलता सिर्फ बिरले को ली है।

    साधना विधान इस साधना को साधक या किसी भी अमावस्या की रात्रि में सम्पन्न करें। साधक काले वस्त्र धारण करके काले आसन पर बैठे। अपने समक्ष स्टील की थाली में काले तिल बिछाकर, उस पर ‘महाकाली यंत्र स्थापित करें। यंत्र का पूजन कर निम्न ध्यान मंत्र द्वारा भगवती

     

     

    यह 14 दिन की साधना है. पूर्णिमा को समस्त सामग्री किसी नदी में विसर्जित कर दें। येप्रयोग किसी भी अमावस्या को प्रारम्भ निरजा सकते हैं। उपरोक्त विधि से महाकानी का पूजन तथा देवी ध्यान करें। ये सभा प्रयोग रात्रि काल में ही किर जा सकते हैं। इसमें माला का प्रयोग नहीं होता। प्रयोगसमाप्ति पर समस्त सामाग्री को जल में विसर्जिन करें। –

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