ok सम्पूर्ण तंत्र साधना ज्ञान रहस्य Sampuran Tantra Rahasya PH. 85280 57364

सम्पूर्ण तंत्र Tantra साधना ज्ञान रहस्य Tantra Mantra Rahasya  PH. 85280 57364

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सम्पूर्ण तंत्र Tantra साधना ज्ञान रहस्य Tantra Mantra Rahasya PH. 85280 57364 तंत्र Tantra का विषय बहुत विस्तृत और स्वयं में परिपूर्ण रहा है । इसलिये तंत्र Tantra शास्त्र को सहजरूप में, साधारण बुद्धि के साथ पूर्णरूपेण समझ पाना हर किसी के लिये संभव कभी नहीं रहा। अगर बात तंत्र Tantra साधनाओं के माध्यम से हस्तगत होने वाली क्षमताओं की, की जाये उन्हें तो समझ पाना और भी कठिन काम रहा है, क्योंकि कभी तो तांत्रिकों की बातें पूर्णतः कपोल कल्पित और साधारण ज्ञान से परे की चीजें लगती हैं और कभी तांत्रिकों के क्रियाकर्म, व्यवहार विक्षिप्तों जैसे प्रतीत होते हैं। वास्तविक रूप में तो तंत्र Tantra का सम्पूर्ण विज्ञान स्थूल ज्ञान से परे आत्म अनुभूतियों पर आधारित रहा है। इसलिये तंत्र Tantra साधना की समस्त अनुभूतियां चेतन जगत से परे, साधक के अवचेतन जगत पर अवतरित होती हैं ।

 

सम्पूर्ण तंत्र साधना ज्ञान रहस्य Sampuran Tantra Rahasya PH. 85280 57364

तंत्र Tantra साधना के लिये माध्यम तो साधक का स्थूल शरीर ही बनता है, लेकिन साधना की दिव्य अनुभूतियां सूक्ष्म शरीर के माध्यम से ही अवतरित होती हैं । यह बात हमें ठीक से समझ लेनी चाहिये कि सूक्ष्म शरीर की तथा आत्मिक शरीर की अनुभतियां, स्थूल शरीर की अनुभूतियों से बहुत भिन्न रूप में रहती हैं । हमारा स्थूल शरीर पंच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से अनुभूतियां संग्रहित करता है, लेकिन इन ज्ञानेन्द्रियों की अपनी-अपनी सीमाएं हैं। अपनी सीमा से परे के ज्ञान को यह ज्ञानेन्द्रियां पकड़ नहीं पाती हैं, किन्तु हमारे सूक्ष्म शरीर अथवा कहें कि आत्मिक शरीर की क्षमताएं स्थूल शरीर की अपेक्षा बहुत विस्तृत रूप में रहती हैं । इसलिये तंत्र Tantraादि साधनाओं के माध्यम से जो दिव्यानुभूतियां सूक्ष्म शरीर पर अवतरित होती हैं, उनके बहुत थोड़े से अंश को ही हमारा स्थूल शरीर पकड़ पाता है। यहां एक बात और भी ठीक से समझ लेने की है कि हमारे स्थूल शरीर से संबंधित जो ज्ञानेन्द्रियां हैं उनके ज्ञान का विकास समाज और वातावरण की देन है ।

 

इसलिये समाज हमें नाम प्रदान कर देता है । किसी वस्तु, व्यक्ति अथवा स्थान आदि से जिस नाम से परिचित करवा देता है, वही हमारा ज्ञान हो जाता है। उससे आगे की हमें कोई जानकारी नहीं होती । यही मुख्य कारण है कि किसी अपरिचित व्यक्ति के विषय में हम कुछ भी नहीं बता पाते । अगर किसी पुरुष ने अपने जीवन में पहले कभी भी किसी स्त्री को न देखा हो और न ही स्त्री से संबंधित कोई जानकारी सुनी हो, तो वह पुरुष एकाएक अपने सामने किसी स्त्री को पाकर दंग रह जायेगा, और संभव है कि वह उसे कोई भूत, प्रेत या पशु आदि समझ कर उसके सामने से भाग खड़ा हो जबकि स्वयं उसका जन्म स्त्री शरीर से ही हुआ होता है।

सूक्ष्म शरीर पर अवतरित होने वाली अनुभूतियां वैसे भी चेतना जगत से परे की चीजेंहोती हैं । इन अनुभूतियों के विषय में समाज लगभग संज्ञाहीन ही रहता है। शायद आपने अनेक बार इस बात को तो समझा होगा कि हमारे अनुभव करने की जितनी सीमाएं हैं, उसके हजारवें अंश के बराबर भी हम अपनी अनुभूतियों को प्रकट नहीं कर पाते हैं। हम अपनी अचेतना के द्वारा अपने सूक्ष्म शरीर पर जितना अनुभव कर पाते हैं, उसके हजारवें अंश के बराबर भी सोच-विचार नहीं कर पाते ।

इसी प्रकार हम जितना कुछ सोच-विचार कर पाते हैं, जितनी कल्पनाओं, जितने विचारों को अपने मन में जन्म दे पाते हैं, उनके हजारवें अंश के बराबर भी हम उन्हें शब्दों के रूप में प्रकट नहीं कर पाते। अपनी भावनाओं, अपनी अनुभूतियों को लिखने की सामर्थ्य हमारे सोचने- विचारने की क्षमता के मुकाबले हजारवें अंश के बराबर भी नहीं होती । इसलिये कोई व्यक्ति अपने अन्तस में उठने वाले विचारों को थोड़ा अधिक अंश में पकड़ कर उन्हें बोलकर अथवा लिखकर प्रकट करने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है, वही समाज में सबसे अलग प्रतीत होने लग जाता है ।

फिर वह महान विचारक, महान लेखक, महान कवि, एक अद्भुत विद्वान के रूप में मान्यता प्राप्त कर लेता है । उसकी थोड़ी सी अधिक स्थूल क्षमता उसे सामान्य पुरुष से विशेष पुरुष अथवा महापुरुष बना देती है। लगभग यही बात तांत्रिक साधनाओं और उनके माध्यमों से उत्पन्न होने वाली क्षमताओं के विषय में भी कही जा सकती है । तांत्रिक साधनाओं और तांत्रिक अनुष्ठानों से जो क्षमताएं उत्पन्न होती हैं, उनकी दिव्य अनुभूतियां चेतना से परे रहने वाले सूक्ष्म शरीर पर उतरती हैं, किन्तु उन तांत्रिक अनुष्ठानों को सम्पन्न करने का मुख्य आधार साधक का स्थूल शरीर और बाह्य चेतना ही बनती है। इसलिये तंत्र Tantra के माध्यम से जो दिव्य अनभूतियां साधकों को अनुभव होती हैं, वह साधारणतः स्थूल शरीर पर पूर्णत: से प्रकट ही नहीं हो पाती हैं, क्योंकि उन्हें व्यक्त करने के लिये चेतना से संबंधित ज्ञानेन्द्रियों की सीमाएं सूक्ष्म पड़ जाती हैं।

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